जिन्दगी उधार तो नहीं जिसका कर्ज हर पल ही उतारा जाए। बड़ी ही सुंदर कहावत पढ़ी अभी, कि पत्नियाँँ नमक की तरह होती हैं ,जिसका कोई अस्तित्व नहीं, क्योंकि सब्जियों का स्वाद तो मसालों से होता है,पर इस मूढ़ बुद्धि पुरूष वर्ग से पूछा तो जाए जरा, कि बिना नमक के तुम्हारे मसाले कर भी क्या सकते हैं? बात पुराने समाज की ही मात्र नहीं, ये जाग्रत होता नया समाज है,जो अपने आप को आधुनिक सोच का मानता है। बस दौर थोड़ा सा बदल गया है कि औरतें अपने मन केे सपने को अब पूरा कर लेले के जुनून से भर उठी हैं। अपना मन भले ही मसोस कर ही सही, पूरा कर लेने की कोषिष तो अब कर ही सकती हैं, पर अभी भी भेद-भाव की ये दीवार क्यों है? नहीं चाहती मैं कि कोई पुरूष आदेष देकर अपनी चाहत उस पर थौंप दे। एक ऐसा जीवन चाहा है,जिसमें हमें हमारे विवेक के साथ छोड़ दिया जाए। जहाँ कोई भी निर्णय लूँ हम अपनी स्वतंत्रता से। जहाँ कोई हमारी आजादी का दायरा अपने हिसाब से तय न करे। हमें अपनी सीमा के दायरों का एहसास है। हमारा हर कर्तव्य हमें पता है। हम आत्मनिर्भर भी हैं। हमें सीमा का पैमाना स्वयं ही तय कर लेने दो। कहा जाता है कि आजादी दी गई है तुमको। इस तरह की दलीलें हमें बहुत ही आहत करती है, क्योंकि नहीं चाहिए हमें आपकी दी गई आजादी। हम भी कुछ अपनी चाहत रखती हैं। उसे पूरा करने का मुझको अधिकार है। आप हमें हमारा दायरा दिखा कर महान नहीं बन रहे बल्कि स्वयं को हमारी ही निगाहों में छोटा जरूर कर रहें हैं, क्योंकि आपका पैमाना न हम तय कर देना चाहते हैं और स्वयं को भी सभी बंधनों से मुक्त ही रखना चाहती हैं। हमें कमजोर समझने की गलती मत करना, क्योंकि हमने स्वयं अपने आप को सौंपा हैं न कि अपनी आजादी को। हम भी आसमान में उड़ता पंछी बनकर रहता चाहती हैं ,जो स्वयं ही शाम ढलते अपने पिंजरे में लौटकर आ जाता है, ये शब्द हमारे अहंकार की सीमा तय नहीं करते बल्कि हमें हिम्मत बँधाते हैं कि चल खुद ही राह तलाष क्यों कि खुदा तो तेरे भी साथ है।
Very beautifully written !!
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