Sunday, December 1, 2019

मेरे मन की आवाज

 जिन्दगी उधार तो नहीं जिसका कर्ज हर पल ही उतारा जाए। बड़ी ही सुंदर कहावत पढ़ी अभी, कि पत्नियाँँ नमक की तरह होती हैं ,जिसका कोई अस्तित्व नहीं, क्योंकि सब्जियों का स्वाद तो मसालों से होता है,पर इस मूढ़ बुद्धि पुरूष वर्ग से पूछा तो जाए जरा, कि बिना नमक के तुम्हारे मसाले कर भी क्या सकते हैं? बात पुराने समाज की ही मात्र नहीं, ये जाग्रत होता नया समाज है,जो अपने आप को आधुनिक सोच का मानता है। बस दौर थोड़ा सा बदल गया है कि औरतें अपने मन केे सपने को अब पूरा कर लेले के जुनून से भर उठी हैं। अपना मन भले ही मसोस कर ही सही, पूरा कर लेने की कोषिष तो अब कर ही सकती हैं, पर अभी भी भेद-भाव की ये दीवार क्यों है? नहीं चाहती मैं कि कोई पुरूष आदेष देकर अपनी चाहत उस पर थौंप दे। एक ऐसा जीवन चाहा है,जिसमें हमें हमारे विवेक के साथ छोड़ दिया जाए। जहाँ कोई भी निर्णय लूँ हम अपनी स्वतंत्रता से। जहाँ कोई हमारी आजादी का दायरा अपने हिसाब से तय न करे। हमें अपनी सीमा के दायरों का एहसास है। हमारा हर कर्तव्य हमें पता है। हम आत्मनिर्भर भी हैं। हमें सीमा का पैमाना स्वयं ही तय कर लेने दो। कहा जाता है कि आजादी दी गई है तुमको। इस तरह की दलीलें हमें बहुत ही आहत करती है, क्योंकि नहीं चाहिए हमें आपकी दी गई आजादी। हम भी कुछ अपनी चाहत रखती हैं। उसे पूरा करने का मुझको अधिकार है। आप हमें हमारा दायरा दिखा कर महान नहीं बन रहे बल्कि स्वयं को हमारी ही निगाहों में छोटा जरूर कर रहें हैं, क्योंकि आपका पैमाना न हम तय कर देना चाहते हैं और स्वयं को भी सभी बंधनों से मुक्त ही रखना चाहती हैं। हमें कमजोर समझने की गलती मत करना, क्योंकि हमने स्वयं अपने आप को सौंपा हैं न कि अपनी आजादी को। हम भी आसमान में उड़ता पंछी बनकर रहता चाहती हैं ,जो स्वयं ही शाम ढलते अपने पिंजरे में लौटकर आ जाता है, ये शब्द हमारे अहंकार की सीमा तय नहीं करते बल्कि हमें हिम्मत बँधाते हैं कि चल खुद ही राह तलाष क्यों कि खुदा तो तेरे भी साथ है।


Saturday, November 30, 2019

आज मुझे राम पर आक्रोश आ गया

क्या सोचा था अपने? जब सीता को छोड़  दिया था ,कि अपने बहुत प्यार करने वाली पत्नी का साथ न देकर ,आप समाज को अपना  निर्णय औरत पर छोड़ देने का तरीका सीखा रहे है?ये सिखाया कि, समाज  के लिये आपके कर्तव्य  सर्वश्रेष्ठ  है ?क्या मतलब निकल लिया, इस पुरुष  प्रधान समाज ने। क्या अपने सही किया ,एक पत्नी होने के नाते मेर प्रश्न है आप से ?कि एक औरत को ही क्यो त्याग  की मूरत बनाया जाए ,,?नही चाहती  कि सीता को त्याग कर अपने समाज को एक सीख दी कि खुद निर्णय लो और सौप  दो उस पर ।रीत की बात कर यही अपेक्षा की जाती है कि पत्नी बन कर रहो,पति बनने की कोशिश भी मत करो ।मेर आरोप  है  आप पर ।कि सही नही किया आपने । कष्ट  तकलीफ  की हकदार सीता ही क्यो ?क्या उन्होने भी यही चाहा था कि समाज के लिये आप उनका त्याग करो? अगर  यही चाहा  थाउन्होने, तो फिर आपको पुनः स्वीकार  नही किया? क्यो देख आपको वो धरती की गोद  में समा गयी? क्या वो थक नही चुकी थी समाज की सोच से ?जिसका वो शिकार हो गयी?  आपने अपनी चाहत थोप  दी सीता पर ।क्यो कष्ट  सीता ने ही सहा, मुझे नही लगता कि  आपका निर्णय  उनके लिये लेना उचित था ।पुछ तो लिया होता एक बार उनसे भी ।तो शायद मिल जाता हमे भी अधिकार कि हमारे लिये निर्णय हम खुद ही ले सकते । राम बनने  की कोशिश  तो समाज में हर कोई करता है, फिर हमसे  सीता बनने की अपेक्षा  की जाती है। हम नही महान  सीता की भान्ति । पर अपने ही समाज के लोगो को क्या ये नही सिखाया,कि औरत  के विचार मत जानो ,जो चाहा  आपने किया। भले ही वो आपकी महानता होगी ,पर इस समाज की बहुत सारी औरतों  का प्रश्न  है आपसे कि  एक औरत की चाहत  को कभी महतव क्यो नही दिया  जाता?दिया भी जायेगा या हमेशा की तरह सीता का नाम लेकर थोप दिया जायेगा पुरुष का निर्णय  औरतों  पर ।हमे नही स्वीकार आपका तरीका ।अब आओ और समाज को बताओ कि इस युग में सीता की जरुरत नही ,क्योकि  नही  सह सकती वह सीता की भान्ति ,जरुरत केवल इस बात की ,कि  करने दो हमे भी हमारे  मन की ।
दम  घुटता है लगता है आज़ाद  होकर भी आज़ाद नही अपना निर्णय खुद लेने के लिये ।
अब आप ही आओ  और बताओ  कि  पंख ईश्वर  ने उनको भी लगाये है कर लेने दो उनको अपने मन की । गलत नही है ये ।

चलो मन के किसी कोने से देखें अपनी कहानी

लगता था जैसे सब कुछ जम सा गया मन के किसी कोने में एक तीखा दर्द जो न  जीने देता है और ना ही मरने ।सोच कुछ  बनाता  है आदमी और हो कुछ और ही जाता  है ।अपना बचपन  जैसे सामने खड़ा हो जाता है, जिसे कभी हमने नही पसंद किया। सोच थी की जो गल्तियां  की हमारे अपनो ने ।नही हमने दोहरानी है ।पर क्या पता था,जिस जगह माँ  बाप खडे थे ,उसी मोड  पर हम भी आ जायेगे ।वही मासूमियत फिर कुचल दी जायेगी, अपने अहंकार  के चलते । सोचा तो बिल्कुल  भी नही था कि अपना बचपन लौट  आयेगा  ।देखो आज अपने को भी कटघर की दिवारो  में ।खूब  लगा लिया इलजाम  अपने माता पिता पर ।हो सके तो खूबियाँ  अपना लो सारी ।उनकी  हो सके  तो बच सको कमियों  से उनकी ।मत दोबारा करो बर्बाद बचपन ।बहुत ही मासूम और सुन्दर होता है जो कभी खुद के लिये नही चाहा  तो मत लौटना कभी एक और सुन्दर बचपन को।
Janamdin की ढेर सारी शुभकामनायें
श्रेष्ठ
माँ  की बातें  अपने बच्चों  के नाम